मृत्यु के बाद भी मिर्ज़ा ग़ालिब लोकप्रिय हैं
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता
मृत्यु के 153 साल बाद भी उर्दू-फ़ारसी का सर्वकालिक महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ही है। आपका पूरा नाम मिर्जा असल-उल्लाह बेग ख़ान था। ग़ालिब उनका तख़ल्लुस (उपनाम) था। जो 27 दिसंबर 1797 ई. को दुनिया में आये। उस वक़्त मुग़लिया तख़्त के बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र थे।
ग़ालिब का जन्म आगरा के सैनिक परिवार में हुआ था। उन्होंने पिता और चाचा को अपनी बाल्यावस्था में खो दिया था, इसलिए ग़ालिब का जीवनयापन का ज़रिया मुख्यतः अपने मरहूम चचाजान की मिलने वाली पेंशन से होता रहा। ग़ालिब के पिताश्री मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग थे तथा माताश्री इज़्ज़त-उत-निसा बेगम थी। जो की अपनी ससुराल में ही रहने लगे थे। एक सैनिक के रूप में ग़ालिब के पिताश्री ने पहले लखनऊ के नवाब व बाद में हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ कार्य किया। सन 1803 ई. में अलवर (राजस्थान) में ज़ारी एक युद्ध में उनका इन्तिकाल हुआ तब मासूम गालिब मात्र 5 बरस के थे। वैसे ग़ालिब का जन्म एक तुर्क परिवार में हुआ था तथा अच्छे भविष्य की तलाश में इनके दादाजान सन 1750 ई. के आसपास समरक़न्द (मध्य एशिया) से चलकर हिन्दुस्तान आ गए और यहीं बस गए थे।
मिर्ज़ा की शायरी ने न केवल उर्दू काव्य को ऊँचाइयाँ बख़्शी बल्कि फ़ारसी कविता के प्रवाह को भी हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाया। यद्यपि ग़ालिब से पहले खुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी “मीर” भी इसी वजह से जाने गए।
पहले ग़ालिब पत्र-लेखन को प्रकाशित करवाने के ख़िलाफ़ थे क्योंकि इससे उनकी ग़रीब जगज़ाहिर होती, मगर बाद में उन्होंने इसकी अनुमति दे दी थी। ग़ालिब के लिखे वो पत्र, जो उनकी मृत्यु के बाद बेहद लोकप्रिय हुए। आज भी उनके ख़तों को उर्दू गद्य लेखन के अहम दस्तावेज़ के रूप में स्वीकार किया जाता है।
मिर्ज़ा को 'दबीर-उल-मुल्क' व 'नज़्म-उद-दौला' के खिताब से नवाज़ा गया था। ग़ालिब जो की अपने मूल नाम 'असद' से भी लिखते थे बादशाह ज़फ़र के उस्ताद इब्राहिम जौंक के इन्तिकाल के बाद ज़फ़र के सलाहकार, दोस्त, शुभ चिंतक व उनके मुख्य दरबारी कवि भी रहे।
मिर्ज़ा की ज़िंदगी को तीन प्रमुख क्षेत्रों (आगरा, दिल्ली व कलकत्ता) के लिए याद किया जाता है। आगरा जहाँ उनका जन्म और शादी हुई। दिल्ली जहाँ उनकी जवानी और बुढ़ापा ग़ुज़रा। वहीं उनकी कलकत्ता यात्रा, उनके जीवन का एक अहम पड़ाव थी। जो सन 1857 ई. के ग़दर के बाद बंद हुई उनकी पेन्शन की बहाली को लेकर थी। जहाँ दिल्ली के बाहर उनके अन्य समकालीन शाइरों से गुफ्तगूं, बहस व मुलाक़ातें दिलचस्प बयानी के साथ उनकी आत्मकथा में उपलब्ध है। उन्होंने दुनिया-ए-फ़ानी से रुख़सत होने को अपने वज़ूद के मिटने को कुछ यूँ बयाँ किया है:—
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए क्यूँ
मृत्यु के बाद भी यदि आज मिर्ज़ा ग़ालिब लोकप्रिय हैं तो वो इसी कारण उन्होंने जो बिन्दास चिंतामुक्त जीवन जिया। जिसमें कहीं वो हंसोड़ मज़ाक़िया इन्सान रहे, तो शा'इरी में बेहद गम्भीर दार्शनिक बनकर उभरे। उन्होंने कभी मकान नहीं ख़रीदा, किराये पर रहे। किराये की किताबें ही लेकर पढ़ते रहे। शराबी के रूप में खुदको बदनाम भी करवाया मगर शराब ने उनके भीतर के शाइर को वो ज़िन्दगी बख़्शी जो मृत्युपरान्त भी उन्हें लोकप्रिय बनाये हुए है। आज ग़ालिब की पुण्यतिथि पर मैं उनको सादर नमन करता हूँ।
Punam verma
22-Feb-2022 06:30 PM
Very nice sir
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Seema Priyadarshini sahay
19-Feb-2022 05:19 PM
बहुत ही अच्छी जानकारी है सर
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